आम आदमी के संजोयक केजरीवाल आज ऐसे मेहमान ढूंढ रहे है जो इनके साथ बैठकर दस हजार, बीस हजार रुपैये का खाना खा सके ! इस राजनीती में आम आदमी कहाँ बचा है ? केजरीवाल के राजनीती का ये काला चेहरा है जो लोगों के सामने आ रहा है ! दिल्ली की चुनाव जितने के बाद केजरीवाल ने कहा जीत किसकी हुई है - यह आम आदमी की जीत है , जनता बिच में जायेंगे और उनकी सेवा करेंगे !
वो केजरीवाल कहाँ खो गया ? चुनाव से पहले नागपुर के चमचमाते होटल में जब हजारी प्लेट बिछाई जायेगी तो केजरीवाल का विश्वास उन पाखंड के सामने सर झुकाये खड़ा होगा ! आम आदमी की राजनीती जब रईस के रुपैया खरीद लेगा तो परिवर्तन कि बुनयाद हिल नहीं रही होगी ये सबाल परेशान तो करेगा ही ! क्या अरविन्द केजरीवाल दस रुपैये में मिटने वाली भूख पर प्रीमियम वसूलने का फैसल क्या है वो भी हजार से दो हजार गुना ? और जब ये फैसला कर लेते है तो वो यकीन अपनी मौत मर लेते है की आम आदमी की अठन्नीयाँ भी एक आदर्श राजनीती के रस्ते खोल सकते है ! दस हजार का रात्रिभोज उस रिक्से वाले का चंदा मिटा नहीं देगा ? क्या केजरीवाल इस बात का जबाब देंगे की करोड़पतियों की ये जमात बिना अपनी फायदे की उम्मीद के उनके साथ दस हजार का डिनर क्यों करेगी ?
क्या केजरीवाल को बताना नहीं चाहिए कि जब ताकत आम आदमी का है तो रुपैये खास आदमी का क्यों चाहिए ? क्या केजरीवाल ने अब स्वीकार कर लिया है की रुपैये के अम्बार के बिना राजनीती नहीं बदल सकती ? यह सबाल तो बनता है की जिस जनता ने केजरीवाल कि एक पुकार पर उनकी तिजौरी में इतना रुपैया भर दिया था की उन्हें मना करना पड़े , उसी जनता पर उन्होंने फिर से भरोसा क्यों नहीं किया ? क्या केजरीवाल को वाकई आम आदमी पर भरोसा नहीं रहा या फिर आम आदमी को केजरीवाल पर भरोसा नहीं रहा ?
क्या केजरीवाल को अपनी राजनीती से ज्यादा रईस लोगो पर भरोसा हो चला है ? या फिर उन्होंने मान लिया है की राजनीती में रुपैया नहीं तो कुछ भी नहीं ! अगर केजरीवाल को इसी तरह से रुपैये जुटाने थे तो सितारा होटल के कैंडल लाइट डिनर के वजाय शहर के मैदान में चटाई बिछाकर चुनाव का खर्च निकाल सकते थे ! अब यह सबाल तो बनता है की केजरीवाल ने आम आदमी के बीच पचास रुपैये की थाली क्यों नहीं बेचीं और क्या गारेंटी है की आज दस हजार की थाली बेचने बाल कल लाखो की थाली नहीं बेचेंगे और आगे करोड़ों की चन्दा नहीं लेंगे ?
पार्टी का जो मूल मुद्दा था वो कहीं ग़ुम सा हो गया है जैसे भ्रष्टाचार, सुराज्य सुशाशन ये सब कही गायब सा हो गया है ! वास्तव में केजरीवाल का सियासत बुनियादी विश्वास व सहयोग की राजनति थी परन्तु उनके डिनर ने उनकी सोच को भी संकीर्ण किया है ! और उनसे ज्यादा सिमटा हुआ है उनका आत्मविश्वास की सिर्फ सही होने के दम पर सियासत के सामानांतर लकीरे खिची जा सकती है क्योंकि रोटी के पहले कौर के साथ ही रईसों का यह गरूर सातवे आसमान पर पहुच चूका होगा कि राजनीती उनके रुपैये से चलती है ,जिसके खिलाप लड़ने के लिए चौराहो ने केजरीवाल को चमत्कार का सारथी बनाया था !
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