हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर आधारित है | मानव जीवन को पवित्र व मर्यादित बनाने के लिए संस्कारों का निर्माण किया गया है |
भारतीय ऋषि-मुनियों की यह धारणा रही है की प्रत्येक व्यक्ति यदि स्वयं को संस्कारवान कर ले तो पूरा समाज सुसंस्कृत और शिष्ट हो जाएगा |
हिन्दू संस्कारों की इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका है |संस्कार का अर्थ है मन-वाणी और शरीर का सुधार |
धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी हमारे जीवन में इन संस्कारों का विशेष महत्व है |
हमारे धर्मशास्त्र में मुख्य रूप से 16 संस्कारों की व्याख्या की गई है इनमे सर्वप्रथम गर्भाधान और मृत्यु उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है | विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा बहूत अंतर है लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान,पुंसवन,सिमन्तोनयन,जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमण,अन्नप्राशन चूडाकर्म,विद्यारंभ,कर्णवेध,यज्ञोपवीत,वेदारंभ,केशांत,समावर्तन,विवाह तथा अंत्येष्टि ही मान्य है |
शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है | गृहस्थ जीवन में प्रथम प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है | गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ संतानोत्पति है | उतम संतान की इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन-मन की पवित्रता के लिए यह संस्कार करना चाहिए | गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते है | इनमे पहले तीन( गर्भाधान,पुंसवन,सिमंतोनयन ) को अंतर्गर्भ संस्कार तथा उसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते है |
गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है | गर्भधान संस्कार के लिए रात्रि को ही उपयुक्त माना जाता है क्योंकि इस समय सारी प्रकृति शांत होती है | सहवास में मानसिक एकाग्रता बनी रहती है | गर्भाधान के समय पति-पत्नी दोनों शारीरिक और मानसिक रूप से शुद्ध व पवित्र हों ,जिसके फलस्वरूप आने वाला शिशु संस्कारवान होगा | इसके लिए सर्वप्रथम माता-पिता का सुसंस्कारी होना अति आवश्यक है |
पति-पत्नी एकांत मिलन में वासनात्मक मनोभावों से दूर रहते हुए मन ही मन आदर्शवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर से प्राथना करते रहें , दोनों मनोभूमि यदि आदर्शवादी मान्यताओं से भरी हुई हो तो मनचाही संतान उत्पन्न की जा सकती है | गर्भाधान के समय में अगर किसी एक में भी भय,लज्जा या अपराध का भाव रहेगा तो उसका प्रभाव संतान पर अवश्य होगा , ऐसी मान्यता है | अतः भय,लज्जा युक्त होने और सहवास के लिए तैयार न होने की स्थिति में गर्भाधान नहीं करना चाहिए |
गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार,आचार,व्यवहार,चिंतन भाव सभी को उतम और संतुलित बनाकर अनुकूल वातावरण निर्मित किया जाए | गर्भ के तीसरे माह में शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है |
गर्भ का महत्व को समझें ,वह विकासशील शिशु माता-पिता ,कुल-परिवार तथा समाज के लिए आदर्श बने सौभाग्य और गौरव का कारण बने | माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है |
महाभारत काल में अर्जुन द्वारा सुभद्रा को चक्रव्यूह की जानकारी देने और गर्भस्थ शिशु अभिमन्यु उसे ग्रहण करके सीखना एक उदाहरण है जिससे गर्भस्थ शिशु के सिखने की बात प्रमाणिक साबित होती है मातृत्व एक वरदान है तथा प्रत्येक गर्भवती एक तेजस्वी शिशु को जन्म देकर अपना जीवन सार्थक कर सकती है | गर्भ संस्कार सही अर्थों में गर्भस्थ शिशु के साथ माता-पिता का स्वास्थ्य संवाद है |
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ज्ञान दर्पण
ताऊ .इन
1 comments
कैसे प्राप्त करें तेजस्वी संतान ?
हिदुस्तान में तो इसके लिए सिंपल सा तरीका है , कई बाबा लोग है जो आशीर्वाद के जरिये ही दिव्य पुत्र दे देते है !! और लोग इनके बहकावे में बेवकूफ बनते रहते है !!
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